छत्तीसगढ़

अनेक संघर्षों से समाज की मुख्यधारा की ओर अग्रसर- आदिवासी समाज

छत्तीसगढ़ विश्व आदिवासी दिवस उन विशेष लोगों को समर्पित विशेष दिवस है । जिसका कालखंड सदियों पुरानी व प्राचीन जमीन स्तर से जुड़कर समाजोन्मुखी, देशहित में काम करने वाले जन समुदाय, जननायकों की याद दिलाता है। जिनका अथक योगदान मरते दम तक बना रहा जैसे बिरसा मुंडा, वीर नारायण सिंह, रानी दुर्गावती जैसे समीचीन अनगिनत इस देश की गौरव गाथा का प्रतीक रहा हैं।आदिवासी समाज जन ,जंगल,जमीन से जुड़कर आज तक संघर्षरत हैं। यदि हम बात करें आदिवासी कौन होते हैं और आदिवासी शब्द कैसे बना है। तो आदिवासी शब्द दो शब्दों से ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिलकर बना है।जिसका तात्पर्य है जो आदि काल से वास कर रहा हो अर्थात मूल निवासी हो। भारत में जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है।भारत देश में 11 करोड से ज्यादा आबादी लगभग वास करते हैं। पुरातन संस्कृत ग्रंथों में आदिवासियों को अत्विका और वनवासी भी कहा गया है। भारतीय संविधान की पांचवी अनुसूची में आदिवासियों के लिए अनुसूचित जनजातियों का उपयोग किया गया है।

विश्व आदिवासी दिवस की शुरुआत-

संयुक्त राष्ट्र संघ जिसका मुख्य उदेश्य पुरे विश्व में शांति स्थापना और बंधुतापूर्ण संपर्क देशों के बीच बढ़ाना हैं, 1994 में प्रतिवर्ष 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस (INTERNATIONAL DAY OF THE WORLD’S INDIGENOUS PEOPLE) मनाने का फैसला लिया गया।जनजातीय समाज के समस्याओं जैसे गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा का अभाव, बेरोजगारी एवं बंधुआ मजदूर अदि निराकरण हेतु और विश्व के ध्यानाकर्षण के लिए ये दिवस मनाया जाता हैं। यह दिवस का उदेश्य है आदिवासियों को उनका हक मिल सके।
आदिवासियों को अधिकार दिलाने और उनकी समस्याओं का निराकरण,भाषा संस्कृति, इतिहास के संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा 9 अगस्त 1994 में जेनेवा शहर में विश्व के आदिवासी प्रतिनिधियों का विशाल एवं विश्व का प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस सम्मेलन आयोजित किया गया था। तब से आज पर्यंत मनाया जा रहा हैं।

आदिवासी समाज-


छत्तीसगढ़ के अधिकांश भाग में गोड़ जनजाति फैले हुए हैं। पहले महाकौशल में सम्मिलित भूभाग का अधिकांश हिस्सा गोंडवाना कहलाता था। आजादी के पूर्व छत्तीसगढ़ राज्य के अंतर्गत आने वाली 14 रियासतों में 4 रियासत क्रमशः कवर्धा, रायगढ़, सारंगढ़ एवं शक्ति गोंड रियासत था। गोंडों ने श्रेष्ठ सौन्दर्यपरक संस्कृति विकसित की है। नृत्य व गायन उनका प्रमुख मनोरंजन है। बस्तर क्षेत्र की गोंड जनजातियां अपने सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण समझी जाती हैं। ये लोग व्यवस्थित रूप से गाँवों में रहते हैं। मुख्य व्यवसाय कृषि कार्य एवं लकड़हारे का कार्य करना है। इनकी कृषि प्रथा डिप्पा कहलाती है। इनमें ईमानदारी बहुत होती है।
इसी तरह भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में संथाल, गोंड, मुंडा, बोडो, भील खासी सहरिया गरासिया, मीणा, उरांव, बिरहोर आदि हैं।आदिवासियों का अपना धर्म है।ये प्रकृति के पूजक हैं और जंगल पहाड़ नदियों एवं सूर्य की आराधना करते हैं। इनके अपने पारंपरिक परिधान होते हैं जो ज्‍यादातर प्रकृति से जुडे होते हैं।इनका रहन सहन बोलचाल खाद्य सामग्री भी अलग होता हैं।कन्दमूल का भी सेवन करते हैं। भारत में आदिवासी मुख्यरूप से उड़ीसा, मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल मे अल्पसंख्यक है जबकि भारतीय पूर्वोत्तर राज्यों में यह बहुसंख्यक हैं।जैसे मिजोरम में ये बहुसंख्यक़ है ।इसी तरह अनगिनत जनजाति छत्तीसगढ़ के भूभाग में भी निवासरत हैं जिनमें कोरवा,उराँव ,भतरा,कँवर, कमार, माड़िया,मुड़िया ,भैना,भारिया ,बिंझवार ,धनवार,नगेशिया ,मंझवार ,खैरवार ,भुंजिया, पारधी,खरिया ,गड़ाबा या गड़वा,महरा,महार,माहरा इत्यादि हैं।

संघर्षों से जूझता समाज-

आज आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ ‘आज़ादी की अमृत महोत्सव’ के नाम से मनाया जा रहा।पर क्या उन शोषित, वंचित, दलित और आदिवासी समाज को सही आजादी का उपहार दे पाये? इसका आकलन व चिंतन करने की आवश्यकता है । भले ही आदिवासी दिवस को पूरे विश्व में मनाया जा रहा हो। आज शनैः शनैः देश काल परिस्थितियों के अनुसार कुछेक उनके व्यक्तिगत जीवन रहन -सहन में सुधार हो रहा है। यदि मूलभूत जीवन की गहराईओं तक जाए तो काफी संघर्षपूर्ण इनका जीवन रहा हैं अथवा आज भी हैं। लेकिन इसके बावजूद मुझे नहीं लगता कि दुनियाभर में आदिवासियों की हालत में शायद ही कोई उल्लेखनीय सुधार हुई हो।बिडम्बना यह हैं की तेजी से आर्थिक विकास के बावजूद, आदिवासी समाज विभिन्न पहलुओं से मुख्यधारा से आज भी बाहर है।शिक्षा से लेकर समाज के सर्वोत्तम स्तर तक। जीवन सदैव संघर्षों से, सामाजिक विद्रूपताओं से लड़ते शीर्ष नेतृत्व तक रहा हो परन्तु कही न कही हेय की दृष्टि से भी देखना आगे नहीं बढ़ने का कारण रहा हैं। आज भले ही आरक्षण का मापदंड से भी आँकते हैं परन्तु उनके जमीनी स्तर से एक शीर्षस्थ पदों तक आने में कही न कहीं संघर्षों से भरा होता हैं। अभी वर्तमान में देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आदिवासी समाज से राष्ट्रपति जी का होना उन करोड़ों संघर्षरत आदिवासी समुदाय के लिए मिशाल है।जो ये सोचते थे कि वहाँ तक पहुँचना असंभव है ।बहरहाल महामहिम राष्ट्रपति जी का व्यक्तिगत जीवन अत्यंत संघर्ष भरा रहा।और आज देश के सर्वोच्च पद पर आसीन है।

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